Saturday 25 April 2015

कविता सी लगती है

मेरा लहू कागज़ पर गिरकर मेरा गम कम कर देता है,
मन की आशाओं को मेरी रूप नए दे देता है,
बेझिझक इच्छायें भी मेरी, ज़ाहिर हो जाती हैं,
और दुनिया की नज़रो में ये दास्ताँ एक कविता बन जाती है। 

मैं पल पल का लेखा जोखा, लिख देती हुँ आँसुओ की कलम से,
और वह आँसू मेरे पागल गम के  मोती बन जाते हैं,
सुख दुःख की बेला में जुड़कर उनकी पेशकश होती है,
कुछ हंसकर और कुछ रुलाकर,
वे लोगों को बहका देते  हैं,
और दुनिया की नज़रो में ये दास्ताँ एक कविता बन जाती है। 

मेरा जीवन साधारण सा जब कागज़ पर उतरता है,
दर्द अनेकों छप जाते हैं,
वह कागज़ सब बयान देता है,
मैं हूँ क्या मेरी कहानी?
मेरी बातें एक कागज़ की ज़ुबानी,
फिर ये ग़मगीन हकीकत मेरी सबके दिलों पर असर करती है,
और दुनिया की नज़रो में ये दास्ताँ एक कविता बन जाती है। 

मैं वह लिखती हूँ जो है मन में,
अपने लहू की स्याही की स्याही से,
मेरा मन तो पाक-साफ़, यह दूर है हर बुराई से,
मेरा और कागज़ का नाता जुड़ जाता है अपने आप ही,
और दुनिया समझती है, मैं लिखती हूँ अपनेआप से,
दुनिया क्या जाने क्या सत्य है?
वह जो देखती है वही पढ़ती है,
मेरी अजीब सी दास्ताँ सबको कविता सी लगती है।
                                                                                                            - दीप्ति त्यागी 
                                                                                                           








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