जद्दोजहद की उसको कोई खबर न थी,
बेचैनियों में हरदम ज़िन्दगी ज़हर थी,
सूख गयी थी जब आँखें रुसवाइयों में उसकी,
उस हालत की तबियत की, उसको फ़िक्र न थी,
करना था तो इंतज़ार,
जैसे नसीब में लिखा हो,
मेरे खुदा की भी तो इसमें मंज़ूरी थी,
यादों में रहकर ही वक्त को पार किया,
बस खुदसे दिल का हाल दो-चार किया,
मुझको यूँ तो ऐसे हालातों की आदत न थी,
महरूम भी हुइ जब दिल पे मोहब्बत को सवार किया,
वो जान हो गया जैसे,
मैं ज़मीन, वो आसमान हो गया जैसे,
वो दर्द दे क़ुबूल था,
प्यार दे क़ुबूल था,
वो मेरा ईमान हो गया जैसे,
ऐसी आशिकी उससे हुई,
वो गलत या सही,
सब सोचना फ़िज़ूल हो जैसे,
बस वो ही वो और कुछ नहीं,
मेरा खुद वो हो गया हो जैसे,
उसकी आदत, उसकी फितरत,
समझे-समझ आई नहीं,
उसने भी तो अपने जज़्बात कभी ठीक से बताये नहीं,
बस एक बार कहा मुझे "मोहब्बत है तुमसे"
फिर कभी वो लब्ज़ उसने दोहराये नहीं,
दिल तड़पता आरज़ू में जुस्तुजू में उसकी,
मेरा ख्याल ही एक ऐसा जो उसको आया नहीं,
फ़िक्र उसको हर किसी की,
मेरी चाहत नज़र आई नहीं,
ऐसा क्यों है उसको मेरी फ़िक्र नहीं ज़रा भी,
हर पल जिसको सोचकर ये ज़िन्दगी गुज़ार दी,
वो बस मगरूर है चूर है,
अपनी ख़ुशी में ज़िन्दगी में,
हाँ कुछ पल अगर दे तो लगता है भीख सी दे दी,
शिकायत तो तब भी न थी,
सुकून तो तब भी था,
बस लगती थी कमी सी
उसका वक़्त मिल जाए मुझे,
चाहे महंगा ही सही,
मगर अब तो राब्ता ऐसा है,
उससे मेरा दिल्लगी का,
वो हमनफ़स हो मेरा या न,
उसकी खेरियत ही मकसद ज़िन्दगी का,
जुदाई या नज़दीकियां,
अब बेमानी सी लगती हैं,
ये ज़िन्दगी अब उसके लिए एक क़ुरबानी सी लगती है,
वो इश्क़ है मेरा यही मंज़ूर करके अब,
तबियत क्या ये ज़िन्दगी भी नूरानी सी लगती है,
वो खून बन मोहब्बत का,
अब रगों में दौड़ता है,
वो मेरी जिस्मो जाँ में है,
हर पल मुझसे बोलता है,
तुम ही हो मेरी आशिकी,
मैं तुम्हारा हमसफ़र हूँ,
वो हकीकत में बोले या ना,
ख़्वाबों में अपना दिल खोलता है,
मुझको उसकी असलियत की भी अब खासा ज़रुरत नहीं,
और करीब इतना है दिल के,
उसकी याद में ही गुज़र जाएगी ज़िन्दगी,
बस चाहत है तो एक ही,
मिले ख़ुशी उसे सब जहाँ की,
नेमत खुद की रहे उसपे,
चाहे कीमत क्यों न हो मेरी जान की।
- दीप्ति त्यागी
बेचैनियों में हरदम ज़िन्दगी ज़हर थी,
सूख गयी थी जब आँखें रुसवाइयों में उसकी,
उस हालत की तबियत की, उसको फ़िक्र न थी,
करना था तो इंतज़ार,
जैसे नसीब में लिखा हो,
मेरे खुदा की भी तो इसमें मंज़ूरी थी,
यादों में रहकर ही वक्त को पार किया,
बस खुदसे दिल का हाल दो-चार किया,
मुझको यूँ तो ऐसे हालातों की आदत न थी,
महरूम भी हुइ जब दिल पे मोहब्बत को सवार किया,
वो जान हो गया जैसे,
मैं ज़मीन, वो आसमान हो गया जैसे,
वो दर्द दे क़ुबूल था,
प्यार दे क़ुबूल था,
वो मेरा ईमान हो गया जैसे,
ऐसी आशिकी उससे हुई,
वो गलत या सही,
सब सोचना फ़िज़ूल हो जैसे,
बस वो ही वो और कुछ नहीं,
मेरा खुद वो हो गया हो जैसे,
उसकी आदत, उसकी फितरत,
समझे-समझ आई नहीं,
उसने भी तो अपने जज़्बात कभी ठीक से बताये नहीं,
बस एक बार कहा मुझे "मोहब्बत है तुमसे"
फिर कभी वो लब्ज़ उसने दोहराये नहीं,
दिल तड़पता आरज़ू में जुस्तुजू में उसकी,
मेरा ख्याल ही एक ऐसा जो उसको आया नहीं,
फ़िक्र उसको हर किसी की,
मेरी चाहत नज़र आई नहीं,
ऐसा क्यों है उसको मेरी फ़िक्र नहीं ज़रा भी,
हर पल जिसको सोचकर ये ज़िन्दगी गुज़ार दी,
वो बस मगरूर है चूर है,
अपनी ख़ुशी में ज़िन्दगी में,
हाँ कुछ पल अगर दे तो लगता है भीख सी दे दी,
शिकायत तो तब भी न थी,
सुकून तो तब भी था,
बस लगती थी कमी सी
उसका वक़्त मिल जाए मुझे,
चाहे महंगा ही सही,
मगर अब तो राब्ता ऐसा है,
उससे मेरा दिल्लगी का,
वो हमनफ़स हो मेरा या न,
उसकी खेरियत ही मकसद ज़िन्दगी का,
जुदाई या नज़दीकियां,
अब बेमानी सी लगती हैं,
ये ज़िन्दगी अब उसके लिए एक क़ुरबानी सी लगती है,
वो इश्क़ है मेरा यही मंज़ूर करके अब,
तबियत क्या ये ज़िन्दगी भी नूरानी सी लगती है,
वो खून बन मोहब्बत का,
अब रगों में दौड़ता है,
वो मेरी जिस्मो जाँ में है,
हर पल मुझसे बोलता है,
तुम ही हो मेरी आशिकी,
मैं तुम्हारा हमसफ़र हूँ,
वो हकीकत में बोले या ना,
ख़्वाबों में अपना दिल खोलता है,
मुझको उसकी असलियत की भी अब खासा ज़रुरत नहीं,
और करीब इतना है दिल के,
उसकी याद में ही गुज़र जाएगी ज़िन्दगी,
बस चाहत है तो एक ही,
मिले ख़ुशी उसे सब जहाँ की,
नेमत खुद की रहे उसपे,
चाहे कीमत क्यों न हो मेरी जान की।
- दीप्ति त्यागी
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