एक कश्मकश में मेरी, ये जान जा रही है,
मुझे अपने मन के पंखों की , याद आ रही है।
मैं हूँ एक बाला सजल सबल,
रहना मुझे यादों की आग में जल,
बाबुल का आँगन छोड़ मुझे,
जीना है ज़िन्दगी का नया कल,
मैं थी नटखट, थी अलबेली सी,
थी अनबुझी एक पहेली सी,
मैं प्रेम थी, मैं थी करुणा,
माँ की ममता में घुली हुई सी,
पर मेरी किस्मत तो थी ही कुछ और,
शुरू होना था ज़िन्दगी का नया दौर,
विस्मय था बिछड़े जाने का यूँ,
दिखने लगी ज़िन्दगी की भोर,
मैं हूँ पराई, न जानती थी,
सबको अपना मैं मानती थी,
पर मेरा सपना, जो पुराना था,
टूटना था एक दिन जानती थी,
मुझको किया ऐसे विदा की,
मिल गई नयी ज़िन्दगी मुझे,
हे ईश्वर क्या है सच यही?
क्या यही था मंज़ूर तुझे?
मैंने भी थामी राह वही फिर,
मिला नया घर संसार मुझे,
मेरे मन के कोनों में से,
वे डर के भाव तब ही बुझे,
फिर से पाया मैंने जीवन,
सांसें भी घर जैसी ही थी,
दूजी माँ के रूप में,
मिली मुझको एक माँ ही थी।
- दीप्ति त्यागी
Vaha kya lika h ek dum shudh hindi mai..
ReplyDeleteDhanyavaad :)
DeleteWahhh wahh
ReplyDeleteThank you :)
ReplyDeleteThank you :)
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