पृष्टभूमि: नवाब साहब की संडे की छुट्टी है। वह इस दिन का पूरा मज़ा उठाना चाहते हैं। अपने सारे हफ्ते की थकान को इसी दिन निकालना चाहते हैं। आशावादी तो सभी लोग होते हैं मगर हुआ क्या, वह खुद उनके मुख से सुन लीजिए....
नवाब साहब के सारे हफ्ते के काम में,
बस एक संडे का ही तो दिन होता है,
जो उनकी सारे हफ्ते की थकान को खत्म कर देता है,
जैसे ही हुई सुबह, उन्होंने फ़रमाया ज़ोर से,
अरे! कोई चाय तो ला दे,
माथे की सिलवटें चढ़ाये हुए,
निकली उनकी शरीखेहयात,
चेहरे पर जैसे चाय हो रात,
गुस्सा ऐसे जैसे मार रहीं हों लात,
यूँ ही कुछ ऐंठ-ऐंठ कर आगे बढ़ी बात,
बोलीं चाय की पत्ती नहीं है!
क्या आपके दिमाग की बत्ती नहीं है?
घर का सब राशन खत्म हो गया है!
और आपके मुंह पर अब भी उस कलमुही चाय का साया है?
अगर चाहते हो उस कलमुही का चस्कारा,
तो राशन ले आओ!!
मुझ पर क्यों आर्डर मारा??
अब बात पड़ गई उलटी,
नवाब साहब ने मारी पलटी,
बोले…
भई चाय पी-पी कर हम तो थक गए,
वैसे भी वज़न बहुत बढ़ गया हमारा,
ये ही कहना पड़ा, और कोई बचा भी तो नहीं था चारा,
फिर कुछ सोचकर और समझकर,
शोहर साहब ने बात घुमाई,
अब उन्होंने अपने माथे की सिलवटें चढ़ाई,
कहा…
तुम्हे कल दिए थे ना पांच सौ रूपए,
इतने सारे पैसे कहाँ गए?
मेमसाहब थोड़ा घबराईं,
और धीरे-धीरे बात जुबां पर आई,
बोलीं…
बड़ी गज़ब की साड़ी आई थी,
सारे मोहल्ले में छाई थी,
हमारे ज़हन से एक आवाज़ आई,
और वो साड़ी हमसे बच ना पायी,
नवाब साहब हो गए परेशान,
बोले…तुम्हारा बिलकुल नहीं बचा ईमान?
अरे! हमे बता तो देतीं,
अब मारो मेरे ही सर पर जूती,
ऐसा कहकर नवाब साहब ने पचास रूपए का नोट निकला,
और चाय की पत्ती लाने का आर्डर दे डाला,
फिर कहा की जल्दी लौट आना,
और चाय तैयार रखना,
मैं ज़रा जाकर बालों में डाई लगवाऊं ,
अपनी जवानी को थोड़ा और बढ़ाऊं ,
पर चक्कर तो अब भी नहीं हुआ था खत्म,
पत्ती तो आ गई थी,
बस दूध का ही रह गया था ग़म,
नवाब साहब शक़्ल सवाँरते हुए घर पहुंचे,
और हाल सुनते ही उस शक़्ल पर बारह बजे,
बोले…
या अल्लाह!!
ज़िन्दगी में कभी ये संडे ना आये!
और अगर आये तो रात-रात में ही बात जाए!
- दीप्ति त्यागी
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