ये छलकता हुआ आँसू मेरी हार नहीं!
ये तो मेरे हौंसले बुलंद कर रहा है!
मेरी आँखों में अंगार है अब,
आक्रोश है मैं क्या कहूँ,
ये आंसू तो बस दिल को सुकून दे रहा है!
मैं जो हूँ खुद में बहुत बड़ी है बात,
जो बनना है मुझे, उसमें छिपी तेरी हार है,
क्या कहूँ, अब तो तेरा वक़्त भी तुझपर हंसेगा,
और तू ही इसका ज़िम्मेदार है,
क्या समझा तूने, कि स्त्री कोई खिलौना है?
जिसका मन हुआ उसे खेल जाना है!
अरे!
तेरा तो अस्तित्व है मुझसे, हंसी आती है तुझपे,
धिक्कार है तेरे जीवन पर,
ऐसा पापी है तू,
अधिकार तो तुझे मरने का भी नहीं,
तेरे हर अत्याचार का बदला जो लेना है!
तड़पेगा तू! पछतायेगा अपनी भूल पर!
हुंह! पर क्या करूँ, अब तेरा हश्र जो होना है!
छी! घिन्न आती है तुझपर!
क्या इसलिए संसार तुझे पाना चाहता है?
कि एक दिन तुझे ऐसा होना है?
धूर्त दानव! जा तुझे तो बस रोना है,
हाँ तेरे मगरमच्छ के आँसुओ को,
मेरी आँखों की ज्वाला से हारना है,
मैं हारी तो तब भी नहीं थी,
मगर हाँ! अब मुझे जीतना है!!
-दीप्ति त्यागी
No comments:
Post a Comment