Tuesday, 5 May 2015

ओ माँ बस तू ही

ओ माँ बस तू ही,
मेरे जीवन का आधार है,
एक तू ही पहला प्यार है,
मेरा बचपन से साथी तू ही,
तेरे आँचल में संसार है। 

ओ माँ बस तू ही,
मेरे जीवन का आधार है। 

एक तेरा प्यार सच, झूठा संसार,
हर पग में ठोकर, मैं गिरा हर बार,
माँ तूने सिखाया गिरकर उठना,
मैं जब भी झुका, हुआ लाचार,
मेरी हर सफलता के पीछे, 
तेरी प्रार्थनाएँ हज़ार हैं,
ओ माँ बस तू ही,
मेरे जीवन का आधार है। 

तू है तो जीवन सुन्दर है,

माँ तुझसे घर एक मंदिर है,
इस जीवन का सही अर्थ,
तुझसे ही जाना है,
तेरे दिए ही तो सभी संस्कार मेरे अंदर हैं,
मेरी शक्ति और कुछ नहीं,
बस तेरा ही तो प्यार है,
ओ माँ बस तू ही,
मेरे जीवन का आधार है। 
                                                   दीप्ति त्यागी 
                                                                                   








Sunday, 3 May 2015

रिश्ते और विश्वास

रिश्ते विश्वास से बंधे होते हैं,
और विश्वास रिश्तों से,
जब ये दोनों अलग होते हैं,
ज़िन्दगी के मायने बदल जाते हैं,
लोग जीना भूल जाते हैं,

इसलिए, रिश्तों को सच्चे दिल से निभाओ,
प्यार से, विश्वास से,
इन्हे मज़बूत बनाओ,
क्यूंकि जब विश्वास टूटता है,
तो हंसती खेलती ज़िंदगियाँ तबाह हो जाती हैं !
                                                                       - दीप्ति त्यागी 
                                                                                         

कभी तो वक़्त आयेगा

कभी तो वक़्त आयेगा, जब हम भी हँसेंगे,
बेझिझक हम भी कुछ कहने का दम रखेंगे,
होगा थोड़ा हौंसला, थोड़ी उड़ान भरेंगे,
शायद सब अरमान भी हमारे सच होंगे। 

मगर तब तक जो जीना है,
बड़ी मुश्किल कसौंटी है,
उबर पाएंगे हम इससे,
बड़ी मुश्किल चुनौती है। 

मगर फिर भी हम जी रहे हैं,
सांस नहीं रुकी अब तक,
और कोशिश भी बस एक ही है,
पहुँच पाएं खुशनुमा वक़्त तक। 

उस दूरी को छू पाएं,
नखरे जो दिखा रही है,
हांसिल कर लें ज़िन्दगी सही,
अभी तो बेकार चल रही है!!
                                                  - दीप्ति त्यागी 
                                                                   
                                                   


ये छलकता हुआ आँसू मेरी हार नहीं - A warning to the rapists..

 ये छलकता हुआ आँसू मेरी हार नहीं!
ये तो मेरे हौंसले बुलंद कर रहा है!
मेरी आँखों में अंगार है अब,
आक्रोश है मैं क्या कहूँ,
ये आंसू तो बस दिल को सुकून दे रहा है!

मैं जो हूँ खुद में बहुत बड़ी है बात,
जो बनना है मुझे, उसमें छिपी तेरी हार है,
क्या कहूँ, अब तो तेरा वक़्त भी तुझपर हंसेगा,
और तू ही इसका ज़िम्मेदार है,

क्या समझा तूने, कि स्त्री कोई खिलौना है?
जिसका मन हुआ उसे खेल जाना है!
अरे!
तेरा तो अस्तित्व है मुझसे, हंसी आती है तुझपे,
धिक्कार है तेरे जीवन पर,
ऐसा पापी है तू,
अधिकार तो तुझे मरने का भी नहीं,
तेरे हर अत्याचार का बदला जो लेना है!

तड़पेगा तू! पछतायेगा अपनी भूल पर!
हुंह! पर क्या करूँ, अब तेरा हश्र जो होना है!
छी! घिन्न आती है तुझपर!
क्या इसलिए संसार तुझे पाना चाहता है?
कि एक दिन तुझे ऐसा होना है?
धूर्त दानव! जा तुझे तो बस रोना है,
हाँ तेरे मगरमच्छ के आँसुओ को,
मेरी आँखों की ज्वाला से हारना है,

मैं हारी तो तब भी नहीं थी,
मगर हाँ! अब मुझे जीतना है!!
                                                                              -दीप्ति त्यागी 
                                                                       







हास्य कविता - संडे की छुट्टी - I have dedicated this poem to my parents :-p so it is a must read

पृष्टभूमि: नवाब साहब की संडे की छुट्टी है। वह इस दिन का पूरा मज़ा उठाना चाहते हैं। अपने सारे हफ्ते की थकान को इसी दिन निकालना चाहते हैं। आशावादी तो सभी लोग होते हैं मगर हुआ क्या, वह खुद उनके मुख से सुन लीजिए.... 



नवाब साहब के  सारे हफ्ते के काम में,
बस एक संडे का ही तो दिन होता है,
जो उनकी सारे हफ्ते की थकान को खत्म कर देता है,

जैसे ही हुई सुबह, उन्होंने फ़रमाया ज़ोर से,
अरे! कोई चाय तो ला दे,

माथे की सिलवटें चढ़ाये हुए,
निकली उनकी शरीखेहयात,
चेहरे पर जैसे चाय हो रात,
गुस्सा ऐसे जैसे मार रहीं हों लात,

 यूँ ही कुछ ऐंठ-ऐंठ कर आगे बढ़ी बात,

बोलीं चाय की पत्ती नहीं है!
क्या आपके दिमाग की बत्ती नहीं है?
घर का सब राशन खत्म हो गया है!
और आपके मुंह पर अब भी उस कलमुही चाय का साया है?
अगर चाहते हो उस कलमुही का चस्कारा,
तो राशन ले आओ!!
मुझ पर क्यों आर्डर मारा??

अब बात पड़ गई उलटी,
नवाब साहब ने मारी पलटी,

बोले

भई चाय पी-पी कर हम तो थक गए,
वैसे भी वज़न बहुत बढ़ गया हमारा,
ये ही कहना पड़ा, और कोई बचा भी तो नहीं था चारा,

फिर कुछ सोचकर और समझकर,
शोहर साहब ने बात घुमाई,
अब उन्होंने अपने माथे की सिलवटें चढ़ाई,

कहा… 

तुम्हे कल दिए थे ना पांच सौ रूपए,
इतने सारे पैसे कहाँ गए?
मेमसाहब थोड़ा घबराईं,
और धीरे-धीरे बात जुबां पर आई,

बोलीं…

बड़ी गज़ब की साड़ी आई थी,
सारे मोहल्ले में छाई थी,
हमारे ज़हन से एक आवाज़ आई,
और वो साड़ी हमसे बच ना पायी,

नवाब साहब हो गए परेशान,
बोले…तुम्हारा बिलकुल नहीं बचा ईमान?

अरे! हमे बता तो देतीं,
अब मारो मेरे ही सर पर जूती,

ऐसा कहकर नवाब साहब ने पचास रूपए का नोट निकला,
और चाय की पत्ती लाने का आर्डर दे डाला,

फिर कहा की जल्दी लौट आना,
और चाय तैयार रखना,
मैं ज़रा जाकर बालों में डाई लगवाऊं ,
अपनी जवानी को थोड़ा और बढ़ाऊं ,

पर चक्कर तो अब भी नहीं हुआ था खत्म,
पत्ती तो आ गई थी,
बस दूध का ही रह गया था ग़म,

नवाब साहब शक़्ल सवाँरते हुए घर पहुंचे,
और हाल सुनते ही उस शक़्ल पर बारह बजे,

बोले

या अल्लाह!!
ज़िन्दगी में कभी ये संडे ना आये!
और अगर आये तो रात-रात में ही बात जाए! 
                                                                         - दीप्ति त्यागी 
                                                                         


बुरे लोग

 देखा है हमने दुनिया में,
कि कैसे रंग बदलते हैं,
कुछ बुरे-बुरे से लोग यहाँ,
अच्छे-अच्छों को छलते हैं। 

चुपके से विष घोल दिया,
अमृत में इन लोगों ने,
यह विषधर के वंशज हैं,
जो लोगों जैसे दिखते हैं। 

ताकत इनके हाथों में है,
यह नर्क बनाते जीवन को,
यह व्यापारी, यह लोभी हैं,
यह स्वर्ग का सौदा करते हैं। 

सीता का अपमान किया,
निर्वस्त्र किया पांचाली को,
यह रावण, यह दुर्योधन हैं,
यह रूप नए नित धरते हैं। 
                                              - दीप्ति त्यागी 
                                           

जद्दोजहद की उसको कोई खबर न थी!

जद्दोजहद की उसको कोई खबर न थी,
बेचैनियों में हरदम ज़िन्दगी ज़हर थी,
सूख गयी थी जब आँखें रुसवाइयों में उसकी,
उस हालत की तबियत की, उसको फ़िक्र न थी,

करना था तो इंतज़ार,

जैसे नसीब में लिखा हो,
मेरे खुदा की भी तो इसमें मंज़ूरी थी,

यादों में रहकर ही वक्त को पार किया,

बस खुदसे दिल का हाल दो-चार किया,
मुझको यूँ तो ऐसे हालातों की आदत न थी,
महरूम भी हुइ जब दिल पे मोहब्बत को सवार किया,

वो जान हो गया जैसे,

मैं ज़मीन, वो आसमान हो गया जैसे,
वो दर्द दे क़ुबूल था,
प्यार दे क़ुबूल था,
वो मेरा ईमान हो गया जैसे,

ऐसी आशिकी उससे हुई,

वो गलत या सही,
सब सोचना फ़िज़ूल हो जैसे,
बस वो ही वो और कुछ नहीं,
मेरा खुद वो हो गया हो जैसे,

उसकी आदत, उसकी फितरत,

समझे-समझ आई नहीं,
उसने भी तो अपने जज़्बात कभी ठीक से बताये नहीं,
बस एक बार कहा  मुझे "मोहब्बत है तुमसे"
फिर कभी वो लब्ज़ उसने दोहराये नहीं,

दिल तड़पता आरज़ू में जुस्तुजू में उसकी,

मेरा ख्याल ही एक ऐसा जो उसको आया नहीं,
फ़िक्र उसको हर किसी की, 
मेरी चाहत नज़र आई नहीं,

ऐसा क्यों है उसको मेरी फ़िक्र नहीं ज़रा भी,

हर पल जिसको सोचकर ये ज़िन्दगी गुज़ार दी,
वो बस मगरूर है चूर है,
अपनी ख़ुशी में ज़िन्दगी में,
हाँ कुछ पल अगर दे तो लगता है भीख सी दे दी,

शिकायत तो तब भी न थी,


सुकून तो तब भी था,
बस लगती थी कमी सी
उसका वक़्त मिल जाए मुझे,
चाहे महंगा ही सही,

मगर अब तो राब्ता ऐसा है,

उससे मेरा दिल्लगी का,
वो हमनफ़स हो मेरा या न,
उसकी खेरियत ही मकसद ज़िन्दगी का,

जुदाई या नज़दीकियां,

अब बेमानी सी लगती हैं,
ये ज़िन्दगी अब उसके लिए एक क़ुरबानी सी लगती है,
वो इश्क़ है मेरा यही मंज़ूर करके अब,
तबियत क्या ये ज़िन्दगी भी नूरानी सी लगती है,

वो खून बन मोहब्बत का,

अब रगों में दौड़ता है,
वो मेरी जिस्मो जाँ में है,
हर पल मुझसे बोलता है,
तुम ही हो मेरी आशिकी,
मैं तुम्हारा हमसफ़र हूँ,
वो हकीकत में बोले या ना,
ख़्वाबों में अपना दिल खोलता है,

मुझको उसकी असलियत की भी अब खासा ज़रुरत नहीं,

और करीब इतना है दिल के,
उसकी याद में ही गुज़र जाएगी ज़िन्दगी,

बस चाहत है तो एक ही,

मिले ख़ुशी उसे सब जहाँ  की,
नेमत खुद की रहे उसपे,
चाहे कीमत क्यों न हो मेरी जान की। 
                                                                                         - दीप्ति त्यागी
                                                                                 





Saturday, 2 May 2015

कशमकश

एक कश्मकश में मेरी, ये जान जा रही है,
मुझे अपने मन के पंखों की , याद आ रही है। 

मैं हूँ एक बाला सजल सबल,
रहना मुझे यादों की आग में जल,
बाबुल का आँगन छोड़ मुझे,
जीना है ज़िन्दगी का नया कल,
मैं थी नटखट, थी अलबेली सी,
थी अनबुझी एक पहेली सी,
मैं प्रेम थी, मैं थी करुणा,
माँ की ममता में घुली हुई सी,
पर मेरी किस्मत तो थी ही कुछ और,
शुरू होना था ज़िन्दगी का नया दौर,
विस्मय था बिछड़े जाने का यूँ,
दिखने लगी ज़िन्दगी की भोर,
मैं हूँ पराई, न जानती थी,
सबको अपना मैं मानती थी,
पर मेरा सपना, जो पुराना था,
टूटना था एक दिन जानती थी,
मुझको किया ऐसे विदा की,
मिल गई नयी ज़िन्दगी मुझे,
हे ईश्वर क्या है सच यही?
क्या यही था मंज़ूर तुझे?

मैंने भी थामी राह वही फिर,
मिला नया घर संसार मुझे,
मेरे मन के कोनों में से,
वे डर के भाव तब ही बुझे,
फिर से पाया मैंने जीवन,
सांसें भी घर जैसी ही थी,
दूजी माँ के रूप में,
मिली मुझको एक माँ ही थी।  
                                                                                     - दीप्ति त्यागी 
                                                                                         




यादों के दिये

मेरी ख़ुशी से तुमको क्या मतलब,
मेरे ग़म से तुमको क्या लेना,
यादों के दिये  जो बाकी हों,
उनको भी तुम बुझा देना,

शायद याद नहीं वो दिन तुमको,
जब साथ कभी हम रहते थे,
उन बातों का भी क्या मतलब,
जो तन्हाई में हम कहते थे,

उन भूली बिसरी यादों को,
अब दिल से तुम मिटा देना,
यादों के दिये जो बाकी हों,
उनको भी तुम बुझा देना। 


भूल चुके हो सब वादे,
हर कसम को तुमने तोड़ दिया,
मंज़िल के सपने दिखला कर,
राहों में तन्हा छोड़ दिया,

भूल से कभी ग़र याद आये,
पलकों में अश्क़ छुपा लेना,
यादों के दिये जो बाकी हों,
उनको भी तुम बुझा देना। 


जहाँ रहो तुम खुश रहो,
तुम्हारी ख़ुशी ही मुझको प्यारी है,
मेरे दिल की हर धड़कन में,
अब भी तस्वीर तुम्हारी है,

जिस दर्द को ज़िंदा रखना हो,
उस दर्द की क्या दवा लेना?
यादों के दिये जो बाकी हों,
उनको भी तुम बुझा देना।                     
                                                                                  - दीप्ति त्यागी